Tuesday, June 7, 2011

महाराणा प्रताप : वीरता के परिचायक


महाराणा प्रताप : वीरता के परिचायक

पोस्टेड ओन: June,4 2011 जनरल डब्बा में
भारतभूमि सदैव से ही महापुरुषों और वीरों की भूमि रही है. यहां गांधी जैसे शांति के दूतों ने जन्म लिया है तो साथ ही ताकत और साहस के परिचायक महाराणा प्रताप, झांसी की रानी, भगतसिंह जैसे लोगों ने भी जन्म लिया है. यह धरती हमेशा से ही अपने वीर सपूतों पर गर्व करती रही है. ऐसे ही एक वीर सपूत थे महाराणा प्रताप. महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास में वीरता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के सूचक हैं. इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये हमेशा ही महाराणा प्रताप का नाम अमर रहा है.

maharana pratapमहाराणा प्रताप उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजवंश के राजा थे. एक मान्यता के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म – 9 मई, 1540, राजस्थान, कुम्भलगढ़ में हुआ था. राजस्थान के कुम्भलगढ़ में प्रताप का जन्म महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कंवर के घर हुआ था.

उन दिनों दिल्ली में सम्राट अकबर का राज्य था जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य का ध्वज फहराना चाहता था. मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने हेतु महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, मैं महलों को छोड़ जंगलों में निवास करूंगा, स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंदमूल फलों से ही पेट भरूंगा किन्तु, अकबर का अधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करूंगा. 1576 में हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच ऐसा युद्ध हुआ जो पूरे विश्व के लिए आज भी एक मिसाल है. अभूतपूर्व वीरता और मेवाड़ी साहस के चलते मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए और सैकड़ों अकबर के सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया.

बालक प्रताप जितने वीर थे उतने ही पितृ भक्त भी थे. पिता राणा उदयसिंह अपने कनिष्ठ पुत्र जगमल को बहुत प्यार करते थे. इसी कारण वे उसे राज्य का उत्ताराधिकारी घोषित करना चाहते थे. महाराणा प्रताप ने पिता के इस निर्णय का तनिक भी विरोध नहीं किया. महाराणा चित्तौड़ छोड़कर वनवास चले गए. जंगल में घूमते घूमते महाराणा प्रताप ने काफी दुख झेले लेकिन पितृभक्ति की चाह में उन्होंने उफ तक नहीं किया. पैसे के अभाव में सेना के टूटते हुए मनोबल को पुनर्जीवित करने के लिए दानवीर भामाशाह ने अपना पूरा खजाना समर्पित कर दिया. तो भी, महाराणा प्रताप ने कहा कि सैन्य आवश्यकताओं के अलावा मुझे आपके खजाने की एक पाई भी नहीं चाहिए.

महाराणा प्रताप के पास उनका सबसे प्रिय घोड़ा “चेतक” था. हल्दी घाटी के युद्ध में बिना किसी सहायक के प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर चल पड़ा. उसके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया. रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था. घायल चेतक फुर्ती से उसे लांघ गया परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये. चेतक की बहादुरी की गाथाएं आज भी लोग सुनाते हैं.

सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी.

हल्दीघाटी का बादशाह बाग


हल्दीघाटी का बादशाह बाग

January 3rd, 2007 · अब तक कोई टिप्पणी नहीं की गई · प्रमुख दर्शनीय स्थल, राजसमन्द जिला

बादशाह बाग एक बडा सा बाग है जो कि हल्दीघाटी खमनोर के मार्ग पर स्थित है। यह हल्दीघाटी खमनोर का बादशाह बाग अपना एक अलग एतिहासिक महत्व रखता है । जब महाराणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी, तब मुगलिया सल्तनत कि तरफ से मानसिंह को एक बडी फौज महाराणा प्रताप व उनकी सेना पर चढ़ाई करने हेतु भेजा गया था । हल्दीघाटी का दर्रा बहुत ही संकडा था, कहते है कि सिर्फ एक घुडसवार ही एक बार में जा सकता था अतः मुगलों की सेना एक बडे खुले से मेदान में ठहरी और वह स्थान था बादशाह बाग ।
21 जून 1576 के दिन यहां बादशाह बाग में ही राणा प्रताप की सेना का मुगल सेना से पहली बार सामना हुआ था । महाराणा प्रताप व उनकी सेना नें मुगलों के छक्के छुडा दिये थे, और ईससे मुगल सेना में भगदड मच गई थी । बादशाह बाग
स्वतंत्र भारत कि पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी अपने समय में एक बार हल्दीघाटी आई थी और यहां के बादशाह बाग पर एक विशाल आमसभा का भी आयोजन किया गया था । आजकल ईस बादशाह बाग का काफी अच्छा रखरखाव हो रहा है सो इसका प्राकृर्तिक सौन्दर्य निखर उठा है । विभीन्न पेड पोधे, हरी भरी घास, अच्छी साज सज्जा, लाईट एवं पानी आदि की समुचित व्यवस्था के कारण यह अब और भी अच्छा लगने लगा है । सरकार द्वारा इसे एक एतिहासिक स्मारक की तरह ठीक से तवज्जो देने के कारण इसका जो विकास हुआ है, यह वाकई में एक अच्छा प्रयास है ।

हल्दीघाटी का एतिहासिक महत्व


हल्दीघाटी का एतिहासिक महत्व

January 1st, 2007 · 4 टिप्पणीयां · प्रमुख दर्शनीय स्थल, राजसमन्द जिला

राजसमंद का अपना एक एतिहासिक महत्व है और यह हमें अदभुत शो्र्य और वीरता की कहानी सुनाता है। राजसमंद के खमनोर गांव के समीप ही है, हल्दीघाटी जो कि हमारे राजस्थान के ईतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। हल्दीघाटी का नाम हल्दीघाटी क्यों पडा, इसके पीछे एक बडी लम्बी कहानी है । यह बात है उस समय कि जब लगभग पुरे भारत में मुगल साम्राज्य का आधिपत्य था, पर मेवाड के पराक्रमी और वीर राजाओं ने शुरु से ही किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की थी । मुगल बादशाह अकबर नें कुछ राजपुत राजाओं से मित्रता और रिश्तेदारी बढ़ाई ।
मेवाड के महाराणा उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप में आत्मसम्मान व स्वाभिमान कूट कूट कर भरा हुआ था अतः उन्होने भी मुगलों की आधीनता स्वीकार ना करते हुए उनसे लोहा लेने की ठानी। उनकी इस जंग में राणा पूंजा, झाला मान सिंह, हकीम खां सुरी एवं हजारों भील उनके साथ थे। भामाशाह जैसे दानवीर ने प्रताप की मदद की, ताकि उनकी सेना में हथियारों व अन्य आवश्यक वस्तुओं की कमी ना पडे। 18 जुन 1576 ई. को महाराणा प्रताप एवं अकबर की शाही मुगल सेना के बीच हल्दीघाटी में एक एतिहासिक युद्ध हुआ। हल्दीघाटी में एक छोटा संकीर्ण दर्रा था, और ये ही आने जाने का रास्ता था । एक बार में सिर्फ एक घुडसवार ही इस रास्ते से निकल सकता था और पहाडी रास्तों व जंगलों से राणा प्रताप की सेना खासी वाकिफ थी ।
महाराणा प्रताप कि सेना ने छापामार युद्ध प्रणाली का उपयोग करते हुए मुगलों के दांत खट्टे कर दिये। मुगलों की तरफ से मानसिंह नें सेना की कमान संभाल रखी थी । दोनों सेनाऔं में घमासान युद्ध हुआ, हजारों सेनिक मारे गये । राणा प्रताप ने वीरता से मुगलों का सामना किया । ईसी दौरान मानसिंह और महाराणा प्रताप का सामना हुआ । महाराणा प्रताप नें भाले से भरपुर वार किया, मानसिंह हाथी के ओहदे में छुप गया, हाथी की सुंड में लगी तलवार से महाराणा प्रताप के स्वामीभक्त घोडे चेतक का एक पेर जख्मी हो गया । एक पांव से घायल होने के बावजुद भी चेतक ने एक बडे से नाले को पार किया और राणा प्रताप को महफुज जगह पहुंचा दिया । वहीं उस स्वामिभक्त घोडे चेतक का प्राणोत्सर्ग हो गया, उस स्थान पर आज एक स्मारक बना हुआ है जो कि चेतक स्मारक के नाम से जाना जाता है ।
विशाल मुगल सेना का सामना महाराणा प्रताप की छोटी सी सेना ने किया चेतक स्मारककहते है कि यहां ईतना खुन बहा की एक स्थान पर तलाई भर गई, यह स्थान रक्त तलाई के नाम से जाना जाता है। दोनो ओर के हजारों सेनिक मारे गये और अंत में यह युद्ध एक अनि्र्णायक युद्ध ही रहा । हजारों सेनिको के खुन से रंगी हल्दीघाटी की मिट्टी अभी भी हल्दी के रंग सी है, और ईसी कारण ईस स्थान को कालान्तर में हल्दीघाटी का नाम दिया गया ।

हल्दीघाटी का महाराणा प्रताप संग्रहालय


हल्दीघाटी का महाराणा प्रताप संग्रहालय

January 7th, 2007 · 14 टिप्पणीयां · प्रमुख दर्शनीय स्थल, राजसमन्द जिला

हल्दीघाटी पर चेतक स्मारक से कुछ ही कदमों की दुरी पर स्थित है यहां का महाराणा प्रताप संग्रहालय । अभी अभी में ईसका निर्माण हुआ है पर चू्किं यहां सारी सुविधाएं एक ही जगह पर है ईसलिये यह काफी प्रसिद्ध हो गया है । यह बनाया गया है उसी पुराने तरह के शिल्प से । सब कुछ जेसे काफी सहेज कर रखा गया हो ए॓सा प्रतीक होता है । यहां टिकट ले कर अंदर जाने से लेकर के बाहर आने तक सब कुछ काफी व्यवस्थित है।  रोजाना यहां काफी पर्यटक आते हैं।
यहां हर पन्द्रह मिनट में आने वालों को Light & Sound शो दिखाया जाता है जिसमें महाराणा प्रताप के जीवन विषयक लघुफिल्म दिखाई जाती हे, साथ ही विभीन्न शस्त्रों, फोटो, किताबों आदि की प्रदर्शनी भी दिखाई जाती हे । ततपश्चात बडे से एक नक्शे पर दिखाया जाता है, कि कहां युद्ध हुआ, राणा प्रताप के घोडे चेतक ने कहां उन्हें सकुशल पहुचाया आदि । आगे महाराणा प्रताप की जीवनी से सबंधित घटनाओं का सजीव ब्योरा दिखाया गया है उनमें पन्ना धाय के बलिदान की कहानी, महाराणा प्रताप का साथीयों के साथ युद्ध की तेयारी हेतु बातचीत, राणा प्रताप की जंगल में रहन सहन, घास की रोटी खाते हुए महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी के युद्ध के दोरान एक पावं से घायल चेतक का बलिदान आदि काफी अच्छे ढ़ंग से दिखाया गया है।
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ देने वाले भीलू राजा, हकिम खां सुरी, राणा पुंजा, दानी भामाषाह आदि के यहां काफी अच्छे चित्रण  है । अन्त में हल्दीघाटी में गुलाब की खेती, गुलाबजल केसे बनता है आदि दिखाया जाता है । बाहर ही हस्तशिल्प, किताबें, चाय नाश्ता, गन्ने का रस, पारंपरिक पोशाको् में फोटोग्राफी, उंट व घोडे की सवारी एवं नौकायन आदि की सुविधाएं है । आज की आधुनिक तकनीकी को पुरातन संस्कृति में मिलाकर जो यह महाराणा प्रताप संग्रहालयताना बाना बनाया गया हे वह काफी आकर्षक लगता है । ए॓सा लगता है जेसे किसी ने उदयपुर के शिल्पग्राम से प्रेरित होकर यह सारा कार्य किया है, पर किसी से प्रेरणा लेना गलत नहीं है। ईतना स्टाफ, ईन सभी का रखरखाव, पर्यटकों को शो दिखाना आदि यह सारा काम ईतने व्यवस्थित तरीके से करना वाकई काबिल ए तारीफ है।

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महाराणा प्रताप


महाराणा प्रताप के बारे में एक भ्रांती

Bhupendra Singh Chundawat

राजपूताने में यह जनश्रुति है कि एक दिन बादशाह ने बीकानेर के राजा रायमसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज से, जो एक अच्छा कवि था, कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लग गए है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गए हैं। इसी पर उसने निवेदन किया कि यह खबर झूठी है। बादशाह ने कहा कि तुम सही खबर मंगलवाकर बताओ। तब पृथ्वीराज ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा प्रताप के पास भेजे-
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण।
हिमर पछम दिस मांह, ऊगे राव उत॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज जन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक॥
आशय : महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहें तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असंभव है वैसे ही आप के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असंभव है। हे दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।
इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया-
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछा पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ तिस केवाण॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर स्वाद।
भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरब सूं बाद॥
आशय : भगवान एकलिंगजी इस शरीर से तो बादशाह को तुर्क ही कहलावेंगे और सूर्य का उदय जहां होता है वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा। हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये। राणा सिर पर सांग का प्रहार सहेगा, क्योंकि अपने बराबरवाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज तुर्क के साथ के वचनरूपी
विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।
यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत ही प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में उसका उत्साह बढ़ाने के लिये उसने नीचे लिखा हुआ गीत लिख भेजा-
नर जेथ निमाणा निलजी नारी,
अकबर गाहक बट अबट॥
चौहटे तिण जायर चीतोड़ो,
बेचै किम रजपूत बट॥
रोजायतां तणें नवरोजे,
जेथ मसाणा जणो जाण॥
हींदू नाथ दिलीचे हाटे,
पतो न खरचै खत्रीपण॥
परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटो लाभ अलाभ खरो॥
रज बेचबा न आवै राणो,
हाटे मीर हमीर हरो॥
पेखे आपतणा पुरसोतम,
रह अणियाल तणैं बळ राण॥
खत्र बेचिया अनेक खत्रियां,
खत्रवट थिर राखी खुम्माण॥
जासी हाट बात रहसी जग,
अकबर ठग जासी एकार॥
है राख्यो खत्री धरम राणै,
सारा ले बरतो संसार॥
आशय : जहां पर मानहीन पुरूष और निर्लज स्त्रियां है और जैसा चाहिये वैसा ग्राहक अकबर है, उस बाजार में जाकर चित्तौड़ का स्वामी रजपूती को कैसे बचेगा। मुसलमानों के नौरोज में प्रत्येक व्यक्ति लूट गया, परन्तु हिन्दुओं का पति प्रतापसिंह दिल्ली के उस बाजार में अपने क्षत्रियपन को नहीं बेचता। हम्मीर का वंशधर अकबर की लाानक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता और पराधीनता के सुख के लाभ
को बुरा तथा अलाभ को अच्छा समझकर बादशाही दुकान पर राजपूती बेचने के लिए कदापि नहीं आता। अपने पुरुखाओं के उत्तमर् कत्तव्य देखते हुए आप ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को बेच डाला। अकबररूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जाएगा और उसकी यह हाट भी उठ जाएगी, परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायेगी कि क्षत्रियों के धर्म में रहकर
उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया। अब पृथ्वी भर में सबको उचित है कि उस क्षत्रियत्व को अपने बर्ताव में लावें अर्थात राणा प्रतापसिंह की भांति आपत्ति भोग कर भी पुरुषार्थ से धर्म की रक्षा करें।